Sunday 16 November 2014

इंतज़ार

तुम कह चुके हो कि नहीं आओगे तुम
और जानती हूँ, जो कहते हो वही करते हो
वादे के पक्के जो हो
फिर भी न जाने क्यों,
दरवाज़े की हर आहट मुझे उकसाती है,
कि शायद तुम आये हो
कि शायद इस तरह आकर मुझे चौंका दोगे
कि शायद ये तुम्हारा तरीका हो मुझे मुस्कराहट देने का
कि जब तड़पकर भूख बढ़ जाए, भोजन ज़्यादा स्वादिष्ट लगता है
पर ज्यों ज्यों समय भाग रहा है, त्यों त्यों बेचैनी बढ़ रही है
अब तो आ भी नहीं सकते हो तुम
तुम्हारी भी तो कुछ सीमाएं है
हाँ मगर अफ़सोस है मुझे
पहूँच तो मैं भी सकती थी तुम तक
तुमने अपने अंदाज़ में बुलाया भी था
पर कुछ मेरी सनक और कुछ ये कम्बख़्त किस्मत
परिस्थिति अनुकूल होकर भी मेरे काम न आई
"जो होता है अच्छा ही होता है"
ऐसे अपने शाश्वत सिद्धांत के तहत
ढूंढ तो लूंगी कोई वजह इस अमिलन की
पर जो न हुआ क्या वो अच्छा नहीं होता?
नहीं भी होता तो किसी तरह अच्छा बना ही देते हम
फिर तुम्हारा साथ हो तो बुरा भी अच्छा ही लगने लगता है
जैसे भर गर्मी में धूप बिसर जाती है
जब सर पर किसी के हाथ की छाया हो
पर आखिर तुम नहीं आये और ख़त्म हुआ मेरा आज का इंतज़ार
इंतज़ार दो तरह से ख़त्म होता है
एक - इच्छाओं के पूरा होने पर
और दूसरा - वक़्त के ख़त्म होने पर
मैं वक़्त के ख़त्म होने तक करुँगी तुम्हारा इंतज़ार
या तुम इंतज़ार को ख़त्म करके थाम लेना मेरा वक़्त