द्वार द्वार शकुनी मंथरा कान भरे इंसान का,
दुर्योधन केकैयी कई है नाश करें खानदान का,
राम का सगा भाई भरत भी हाय कहीं पर खो गया,
इस युग का दशरथ तो बेघर बेपनाह ही हो गया।
कई बरस वनवास बीत गये दीपावली तो आती नहीं,
जेठानी देवरानी मिलकर गीत ख़ुशी के गाती नहीं,
दादी चाची से दूर लव कुश एकांकी ही पल रहे,
मानो मीन हो दीन जो है जल के बीच भी जल रहे।
गली गली महाभारत का बिगुल बजा रहे कौरव पांडव,
तुच्छ पांच गाँवों के पीछे हो रहा युद्ध का तांडव,
इस युग का अर्जुन बिन सारथि बीच चौराहे पर खड़ा,
गीता ज्ञान के बिन वो टिके न ज्यों धरा बिन हो घड़ा।
प्रेम की आभा से आप्लावित जन ज्यों चमकता चन्द्रमा,
जन की विभा को विभाजन छीने हो कर आई अमर अमा,
हर युग को पीना पड़ा है कटुक विष ये विभाजन का,
कल युग में घर पल पल बदले ज्यों कदम नटराजन का।
देख प्रिय लक्ष्मण की मूर्छा राम मंगाए संजीवनी,
कहा माता ने बांटो जो लाये अर्जुन ने दे दी संगिनी,
चरण-पादुकाएं रघुपति की पा रही राज्याभिषेक,
ऐसे थे उस युग में भ्राता विनय विवेक से हो गये एक।
क्या भारत में भरत न होंगे राम लखन की अटखलियाँ,
क्या पांडव से भाई न होंगे मुठ्ठी बनाए ज्यों अंगुलियाँ,
विनय-विवेक उदित न हुए तो अन्धकारमयी होगा प्रभात,
महापुरुषों के ग्रन्थ पढ़े पर रहे ढाक के तीन ही पात।
अरजी का एक तार भेजु उस परम भगवान् को,
तार एक मजबूत मांगू जोड़ दे इंसान को,
टिमटिमाती रोशनी दे ऐसा तार ही भेज दो,
तार दो नफरत के सागर से शाश्वत प्रेम की सेज दो।
--------------------------------------------------- अंशु पीतलिया