Monday 3 September 2012

मेरा ककहरा 'क' से शुरू नहीं होता. मेरी वर्णमाला में 'न' के बाद 'व' आता है. बंधी बंधाई लीक के मानकों के अनुसार मेरा अक्षर ज्ञान कमतर हो सकता है पर मै निरक्षर तो नहीं...

# काव्य-कला, मात्रा, छंद, अलंकार, रस इत्यादि के सन्दर्भ में..

Monday 27 February 2012

कभी ख़ुशी कभी ग़म पर सदा खुश है हम

रखो समत्व का भाव जीवन में चाहे ख़ुशी या चाहे खेद,
चाहे अपने प्राणतत्व में हो गये हो कितने ही छेद,
खोखली होकर ही तो बंसी मधुर मधुर सी तान कहे,
तभी तो दुनिया वाले उसको मोहन की पहचान कहे।

पीटा जाता है तबला तब ला पाता वह मधुरिम धाप,
मिलते न अहिल्या को राम जो होता न पथरीला शाप,
सुख दुःख के मंथन में पीते सुख का प्याला बन कर सुर,
दुःख का हलाहल पीने वाला सीधे जाता है शिवपुर।

धुप में तपकर ही तो बरगद सबको छाया दे पाता,
बिन अग्नि का ताप सहे क्या सोना माया दे जाता,
जीवन है एक जलती चिता सम चारो तरफ छाए मातम,
बैठो बन प्रहलाद चिता में पत्थर में हो परमातम।



घोर ठण्ड गहन आतप में नग्न पैर चलना मुश्किल,
चलने वाला साधू सिद्धि मुक्ति की पाता मंज़िल,
बिन पतझड़  को लांघे क्या मौसम में आता है मधुमास,
मिलता है रामराज्य उसी को सहे जो समता से वनवास।

अपने रंगीले पंख को खोकर मोर तो रोता बिलखता है,
लेकिन होती पूजा उसकी मोहन मुकुट वो सजता है,
कहाँ मखमल कहाँ दलदल चंदना फिर भी रखती रही समभाव,
दुनिया वालों का विष पीकर मीरा चढ़ी भक्ति की नाव।

इश्वर चाहे जो कुछ करता अच्छे के लिए ही करता है,
कहीं जीत-हार कहीं पुष्प-हार वह नयी उम्मीदें भरता है,
शत लौह द्वार जो बंद करें तो एक स्वर्णिम द्वार खोले रखता,
इसी तरह सुख दुःख के पलड़े आपस में तोले रखता।


                                         --------------------अंशु पीतलिया
  


 
 
       

  

जन्म

वसुंधरा की गोद में सो रहा है बाल बीज,
वितान के विधान का जो कर रहा है ध्यान खींच,
गर्भ काल पूर्ण हुआ श्रावणा की रात है,
अब तो दिशा गुन्जाओ जन्म की सौगात है।


प्राकृतिक चमकार है अम्बर ख़ुशी से रो रहा,
कोख अवनी का आँगन हो गया हरा भरा,
चंदा सा है मुखड़ा शिशु का चंदा भी लजा गया,
बादलों के घूँघट से लाज वो बचा गया।

जन्मोत्सव के गीत गाती देवियों का शोरगुल,
निहारती नीहार कण को नन्हे हाथों पे विपुल,
स्वर्ग की ये परियां जग को दे रही आमंतरण,
अब तो जागो रे जगत हो गया है नव सृजन।



ख़ुशी के लड्डू बांटता आकाश वो परमपिता,
प्राची का वो लाडू एक जगत को प्रकाशता,
सहस्त्र रश्मि सूर्य की शिशु को देती नवजीवन,
धरती माँ के बाल का आह ! हो गया सूरज पूजन।

जा रहे अतिथि देव देवियाँ भी जा रही,
अपने शिशु की याद उनको तृण महल की आ रही,
ख़ुशी के बीच बीज वो जमा रही अपनी जड़ें,
नया जीवन शुरू हुआ इस घर में वो फले फूले।

माँ का आशीष शिशु शीत जल से प्राप्त कर रहा,
कठोर पिता का ह्रदय भानु आतप बरस रहा,
हमराही इसकी बहना ठंडी हवा का यूँ बहना,
अपनी बहन के प्यार में उसका यूँ झूला झूलना|

माता-पिता बहन का आशीष तो जरूरी है,
बिना जल आतप बिना हवा उसकी बढ़त अधूरी है,
माता की शीत ममता पिता की ये कठोरता,
बहना का यूँ बहना उसके जीवन की ठौरता।

रात्री में स्वांग धर पिता शीत शशि बन आया,
उसने सोते बाल के गाल को यूँ सहलाया,
ले आया साथ लाख दास वे भी पंखा झल रहे,
टिमटिमाती रौशनी फैला अनवरत वो चल रहे।

कितना मनोहारी है दृश्य आह! किसी का जन्मना,
ये खुशियाँ, गीत चमक दमक में झूले ललना,
माता पिता की गोद में नन्हें शिशु का पलना,
प्रकृति हो या मनुज हो ये सौभाग्य है मनभावना।
  
                                                 ----------------- अंशु पीतलिया 
 


 


 
 
     

विभाजन


द्वार द्वार शकुनी मंथरा कान भरे इंसान का,
दुर्योधन केकैयी कई है नाश करें खानदान का,
राम का सगा भाई भरत भी हाय कहीं पर खो गया,
इस युग का दशरथ तो बेघर बेपनाह ही हो गया।

कई बरस वनवास बीत गये दीपावली तो आती नहीं,
जेठानी देवरानी मिलकर गीत ख़ुशी के गाती नहीं,
दादी  चाची से दूर लव कुश एकांकी ही पल रहे,
मानो मीन हो दीन जो है जल के बीच भी जल रहे।

गली गली महाभारत का बिगुल बजा रहे कौरव पांडव,
तुच्छ पांच गाँवों के पीछे हो रहा युद्ध का तांडव,
इस युग का अर्जुन बिन सारथि बीच चौराहे पर खड़ा,
गीता ज्ञान के बिन वो टिके न ज्यों धरा बिन हो घड़ा।

प्रेम की आभा से आप्लावित जन ज्यों चमकता चन्द्रमा,
जन की विभा को विभाजन छीने हो कर आई अमर अमा,
हर युग को पीना पड़ा है कटुक विष ये विभाजन का,
कल युग में घर पल पल बदले ज्यों कदम नटराजन का।

देख प्रिय लक्ष्मण की मूर्छा राम मंगाए संजीवनी,
कहा माता ने बांटो जो लाये अर्जुन ने दे दी संगिनी,
चरण-पादुकाएं रघुपति की पा रही राज्याभिषेक,
ऐसे थे उस युग में भ्राता विनय विवेक से हो गये एक।

क्या भारत में भरत न होंगे राम लखन की अटखलियाँ,
क्या पांडव से भाई न होंगे मुठ्ठी बनाए ज्यों अंगुलियाँ,
 विनय-विवेक उदित न हुए तो अन्धकारमयी होगा प्रभात,
महापुरुषों के ग्रन्थ पढ़े पर रहे ढाक के तीन ही पात।

अरजी का एक तार भेजु उस परम भगवान् को,
तार एक मजबूत मांगू जोड़ दे इंसान को,
टिमटिमाती रोशनी दे ऐसा तार ही भेज दो,
तार दो नफरत के सागर से शाश्वत प्रेम की सेज दो।



  
                          ---------------------------------------------------  अंशु पीतलिया