Tuesday 23 February 2016

तलाक़

उन दिनों
जब घर की इज़्ज़त कहा था मुझे
जानते हो कितनी उहापोह में थी मैं
जैसे किसी नाकाबिल आदम को तमगा मिला हो
उसे सम्मान से अर्श पर बैठा दिया हो
बस एक छोटा सा भार हो उसपर
उस सम्मान का मान रखना हो ता'उम्र
उसके काबिल बनकर

और अब
जब कह दिया है के बीवी नही हूँ मैं तुम्हारी
ऐसा लगा मानो पटक दिया हो
अर्श से फर्श पर
धड़ाम से
जैसे छीन लिया हो हर एक तमगा
जैसे उतार ली हो घर की इज़्ज़त की इज़्ज़त
जैसे कह दिया हो अपनी ही पत्नी को रखेल

हाँ ये सच है
समाज के रस्मो रिवाज़ के मुताबिक़
वादे न फिरे अग्नि के आसपास
न कबूला निकाह किसी क़ाज़ी के सामने
लेकिन जब अपने आप को सौंपा था तुम्हें
हर एक सांस का स्पंदन फेरे सा था
हर एक धड़कन थी साथ निभाने का वादा
हर एक लफ्ज़ क़ुबूल रहा था तुम्हें

लो आज तुमने तलाक़ तलाक़ तलाक़ भी कह दिया ..