Sunday 13 January 2019

रसोईघर और दुनिया

मसालेदानी में खाली करते वक़्त सूखे धनिए का पाउडर
वह बना और देख लेती है पहाड़
सब्जियों में ढूंढ़ लेती है पेड़, जंगल और वादियां
बरसात में छत से चूते पानी में देख लेती है नदियां
और उसे साफ करते वक़्त पार कर लेती है सात समंदर


वह जानती है कि बर्तन
उनकी सही जगह पर न हो
तो हाथ के हल्के से टुल्ले से
गिर जाते है एक दूसरे पर
और भर देते है घर भर को शोर से
वह जमाए रखती है बर्तन

वह जानती है एक हल्के से जामन से
दूध हो जाता है दही
और दही नहीं चढ़ता शिव पर
वह बचाए रखती है पवित्रता
दूध की

वह राजनीति नहीं जानती
पर जानती है कि कभी कभी
पिस जाता है घुन भी गेंहू के साथ

वह जानती है अंतर है पीसने और दलने में
कि चना दाल होगा या बेसन
यह निर्भर करता है पाटों के दबाव पर
और कितनी देर से घूम रही है चक्की
इस बात पर
वह दाल होते होते बेसन हो जाती है

वह जानती है रोटी के स्वाद में छिपा है
सही मात्रा में मिलाया गया नमक और पानी
और एक अच्छी मियाद तक उसका आटे में गूंथना
मगर कभी कभी नहीं मिलता है बराबर आटा
या उसमें ठीक से मिलना
वह सेंक लेती है नमकीन पानी से रोटियां

वह जानती है कूटते वक़्त लाल मिर्च
अगर छुट भर तेल मिला दें हमामदस्त में
तो बचा सकते है उसकी धौंस से नाक को
और इसलिए सजा लेती है वह
पति का लाया गजरा बालों में
और उसकी खुशबू में नजरअंदाज कर देती है
इतनी समझदारी से घर चलाने वाली को
अपढ़ और मसालों की गंध से भरी होने की
गाली दी थी उसने

रसोईघर में कैद स्त्रियों को हम नाहक ही कह देते हैं
बाहर निकलो, घूमों, दुनिया देखो
उन्होंने हमसे ज़्यादा दुनिया देखी है

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